Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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भरतसिंह-सरकार कह देगी, हमें दरबार के आंतरिक विषय में दखल देने का अधिकार नहीं।
महेंद्रकुमार-दरबार ही के पास क्यों न डेपुटेशन भेजा जाए?
जॉन सेवक-हाँ, यही मेरी भी सलाह है। राज्य के विरुध्द आंदोलन करना राज्य को निर्बल बना देता है और प्रजा को उद्दंड। राज्य-प्रभुत्व का प्रत्येक दशा में अक्षुण्ण रहना आवश्यक है, अन्यथा उसका फल वही होगा, जो आज साम्यवाद का व्यापक रूप धारण कर रहा है। संसार ने तीन दशाब्दियों तक जनवाद की परीक्षा की और अंत में हताश हो गया। आज समस्त संसार जनवाद के आतंक से पीड़ित है। हमारा परम सौभाग्य है कि वह अग्नि-ज्वाला अभी तक हमारे देश में नहीं पहुँची, और हमें यत्न करना चाहिए कि उससे भविष्य में भी निश्शंक रहें।
कुँवर भरतसिंह जनवाद के बड़े पक्षपाती थे। अपने सिध्दांत का खंडन होते देखकर बोले-फूस का झोंपड़ा बनाकर आप अग्नि-ज्वाला से निश्शंक रह ही नहीं सकते। बहुत सम्भव है कि ज्वाला के बाहर से न आने पर भी घर ही की एक चिनगारी उड़कर उस पर गिर पड़े। आप झोंपड़ा रखिए ही क्यों! जनवाद आदर्श व्यवस्था न हो; पर संसार अभी उससे उत्ताम कोई शासन-विधान नहीं निकाल सका है। खैर, जब यह सिध्द हो गया कि हम दरबार पर कोई असर नहीं डाल सकते, तो सब्र करने के सिवा और क्या किया जा सकता है। मैं राजनीतिक विषयों से अलग रहना चाहता हूँ, क्योंकि उससे कोई फायदा नहीं। स्वाधीनता का मूल्य रक्त है। जब हममें उसके देने की शक्ति ही नहीं है, तो व्यर्थ में कमर क्यों बाँधों, पैंतरे क्यों बदलें, ताल क्यों ठोंकें? उदासीनता ही में हमारा कल्याण है।
प्रभु सेवक-यह तो बहुत मुश्किल है कि आँखों से अपना घर लुटते देखूँ और मुँह न खोलूँ।
भरतसिंह-हाँ, बहुत मुश्किल है, पर अपनी वृत्तिायों को साधना पड़ेगा। उसका यही उपाय है कि हम कुल्हाड़ी का बेंट न बनें। बेंट कुल्हाड़ी की मदद न करे, तो कुल्हाड़ी कठोर और तेज होने पर भी हमें बहुत हानि नहीं पहुँचा सकती। यह हमारे लिए घोर लज्जा की बात है कि हम शिक्षा, ऐश्वर्य या धन के बल पर शासकों के दाहिने हाथ बनकर प्रजा का गला काटें और इस बात पर गर्व करें कि हम हाकिम हैं।
जॉन सेवक-शिक्षित वर्ग सदैव से राज्य का आश्रित रहा है और रहेगा। राज्य-विमुख होकर वह अपना अस्तित्व नहीं मिटा सकता।
भरतसिंह-यही तो सबसे बड़ी विपत्तिा है। शिक्षित वर्ग जब तक शासकों का आश्रित रहेगा, हम अपने लक्ष्य के जौ भर भी निकट न पहुँच सकेंगे। उसे अपने लिए थोड़े-बहुत थोड़े दिनों के लिए कोई दूसरा ही अवलम्ब खोजना पड़ेगा।
राजा महेंद्रसिंह बगलें झाँक रहे थे कि यहाँ से खिसक जाने का कोई मौका मिल जाए। इस वाद-विवाद का अंत करने के इरादे से बोले-तो आप लोगों ने क्या निश्चय किया? दरबार की सेवा में डेपुटेशन भेजा जाएगा?
डॉक्टर गांगुली-हम खुद जाकर विनय को छुड़ा लाएगा।
भरतसिंह-अगर वधिक ही से प्राण-याचना करनी है, तो चुप रहना ही अच्छा, कम-से-कम बात तो बनी रहेगी।
डॉक्टर गांगुली-फिर वही च्मेपउपेउ का बात। हम विनय को समझाकर उसे यहाँ आने पर राजी कर लेगा।
रानी जाह्नवी ने इधर आते हुए इस वाक्य के अंतिम शब्द सुन लिए। गर्वसूचक भाव से बोलीं-नहीं डॉक्टर गांगुली, आप विनय पर यह कृपा न कीजिए। यह उसकी पहली परीक्षा है। इसमें उसको सहायता देना उसके भविष्य को नष्ट करना है। वह न्यायपक्ष पर है, उसे किसी से दबने की जरूरत नहीं। अगर उसने प्राण-भय से इस अन्याय को स्वीकार कर लिया, तो सबसे पहले मैं ही उसके माथे पर कालिमा का टीका लगा दूँगी।
रानी के ओजपूर्ण शब्दों ने लोगों को विस्मित कर दिया। ऐसा जान पड़ता था कि कोई देवी आकाश से यह संदेश सुनाने के लिए उतर आई है।
एक क्षण के बाद भरतसिंह ने रानी के शब्दों का भावार्थ किया-मेरे खयाल में अभी विनयसिंह को उसी दशा में छोड़ देना चाहिए। यह उसकी परीक्षा है। मनुष्य बड़े-से-बड़े काम जो कर सकता है, वह यही है कि आत्मरक्षा के लिए मर मिटे। यही मानवीय जीवन का उच्चतम उद्देश्य है। ऐसी ही परीक्षाओं में सफल होकर हमें वह गौरव प्राप्त हो सकता है कि जाति हम पर विश्वास कर सके।
गांगुली-रानी हमारी देवी हैं। हम उनके सामने कुछ नहीं कह सकता। पर देवी लोगों का बात संसारवालों के व्यवहार के योग्य नहीं हो सकता। हमको पूरा आशा है कि हमारा सरकार जरूर बोलेगा।
रानी-सरकार की न्यायशीलता का एक दृष्टांत तो आपके सामने ही है। अगर अब भी आपको उस पर विश्वास हो, तो मैं यही कहूँगी कि आपको कुछ दिनों किसी औषधि का सेवन करना पड़ेगा।
गांगुली-दो-चार दिन में यह बात मालूम हो जाएगा। सरकार को भी तो अपनी नेकनामी-बदनामी का डर है।
महेंद्रकुमार बहुत देर के बाद बोले-राह देखते-देखते तो आँखें पथरा गईं। हमारी आशा इतनी चिरंजीवी नहीं।
सहसा टेलीफोन की घंटी बोली। कुँवर साहब ने पूछा-कौन महाशय हैं?
'मैं हूँ प्राणनाथ। मिस्टर क्लार्क का तबादला हो गया।'
'कहाँ?'
'पोलिटिकल विभाग में जा रहे हैं। ग्रेड कम कर दिया गया है।'
डॉक्टर गांगुली-अब बोलिए, मेरा बात सच हुआ कि नहीं? आप लोग कहता था, सरकार का नीयत बिगड़ा हुआ है। पर हम कहता था,उसको हमारा बात मानना पड़ेगा।
महेंद्रकुमार-अजी, प्राणनाथ मसखरा है, आपसे दिल्लगी कर रहा होगा।
भरतसिंह-नहीं, मुझसे तो उसने कभी दिल्लगी नहीं की।
रानी-सरकार ने इतने नैतिक साहस से शायद पहली ही बार काम लिया है।
गांगुली-अब वह जमाना नहीं है, जब सरकार प्रजा-मत की उपेक्षा कर सकता था। अब काउंसिल का प्रस्ताव उसे मानना पड़ता है।
भरतसिंह-जमाना तो वही है, और सरकार की नीति में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। इसमें जरूर कोई-न-कोई राजनीतिक रहस्य है।
जॉन सेवक-व्यापारी मंडल ने मेरे प्र्रस्ताव को स्वीकार करके गवर्नमेंट के छक्के छुड़ा दिए।
महेंद्रकुमार-मेरा डेपुटेशन बड़े मौके से पहुँचा था।
गांगुली-मैंने काउंसिल को ऐसा संघटित कर दिया था कि हमको इतना बड़ा मेजारिटी कभी नहीं मिला।
इंदु रानी के पीछे खड़ी थी। बोली-विनयपत्र पर मेरे ही उद्योग से इतने आदमियों के नाम आए थे। मुझे तो विश्वास है, यह उसी की करामात है।
नायकराम अब तक चुपचाप बैठे हुए थे। उनकी समझ में न आता था कि यहाँ क्या बातें हो रही हैं। टेलीफोन की बात उनकी समझ में आई। अब उन्हें ज्ञात हुआ कि लोग सफलता का सेहरा अपने-अपने सिर बाँध रहे हैं। ऐसे अवसर पर भला वह कब चूकनेवाले थे। बोले-सरकार, यहाँ भी गाफिल बैठनेवाले नहीं हैं। सिविल सारजंट के कान में यह बात डाल दी थी कि राजा साहब की ओर से पूरा एक हजार लठैत जवान तैयार बैठा हुआ है। उनका हुक्म बहाल न हुआ, तो खून-खच्चर हो जाएगा, शहर में तूफान आ जाएगा। उन्होंने लाट साहब से यह बात जरूर ही कही होगी।

महेंद्रकुमार-मैं तो समझता हूँ, यह तुम्हारी धमकियों ही की करामात है।
नायकराम-धर्मावतार, धमकियाँ कैसी, खून की नदी बह जाती। आपका ऐसा अकबाल है कि चाहूँ, तो एक बार शहर लुटवा दूँ। ये लाल साफे खड़े मुँह ताकते रह जाएँ।
प्रभु सेवक ने हास्य-भाव से कहा-सच पूछिए, तो यह उस कविता का फल है, जो मैंने 'हिंदुस्तान-रिव्यू' में लिखी थी।
रानी-प्रभु, तुमने यह चपत खूब लगाई। डॉक्टर गांगुली अपना सिर सुहला रहे हैं। क्यों डॉक्टर, बैठी या नहीं? एक तुच्छ सफलता पर आप लोग इतने फूले नहीं समाते! इसे विजय न समझिए, यह वास्तव में पराजय है, जो आपको अपने अभीष्ट से कोसों दूर हटा देती है, आपके गले में फंदे को और भी मजबूत कर देती है। बाजेवाले सरदी में बाजे को आग से सेंकते हैं, केवल इसीलिए कि उसमें से कर्ण मधुर स्वर निकले। आप लोग भी सेंकेजा रहे हैं, अब चोटों के लिए पीठ मजबूत कर लीजिए।
यह कहती हुई जाह्नवी अंदर चली गईं; पर उनके जाते ही इस तिरस्कार का असर भी जाता रहा, लोग फिर वही राग अलापने लगे।
महेंद्रकुमार-क्लार्क महोदय भी क्या याद करेंगे कि किसी से पाला पड़ा था।
गांगुली-अब इससे कौन इनकार कर सकता है कि ये लोग कितने न्यायप्रिय होते हैं।
जॉन सेवक-अब जरा उस अंधो की भी खबर लेनी चाहिए।
नायकराम-साहब, उसको हार-जीत का कोई गम नहीं है। उस जमीन की दस गुनी भी मिल जाए, तो भी वह इसी तरह रहेगा।
जॉन सेवक-मैं कल ही से मिल में काम लगा दूँगा। जरा मिस्टर क्लार्क को भी देख लूँ।
महेंद्रकुमार-मैं तो अभिवादन-पत्र न दूँगा। उनकी तरफ से कोशिश तो होगी, पर बोर्ड का बहुमत मेरे साथ है।
गांगुली-ऐसा हाकिम लोग को अभिवादन-पत्र देने का काम नहीं।

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